आयुर्वेद के अनुसार सम्पूर्ण स्वास्थ्य का आधार त्रिदोष – वात, पित्त, और कफ – के संतुलन में निहित है। चरक संहिता (सूत्रस्थान 1/57) में कहा गया है:
“वायु: पित्तं कफश्चैव त्रयो दोषा: समासतः।
विकृताः शरीरं नश्यन्ति सम्यग्योगस्तु तान्युताः॥”
(वायु, पित्त और कफ – ये तीन दोष हैं। जब ये असंतुलित होते हैं तो शरीर का नाश करते हैं, और जब संतुलित होते हैं तो स्वास्थ्य प्रदान करते हैं।)
इसी प्रकार सुश्रुत संहिता (सूत्रस्थान 15/3) में वर्णन है:
“वातपित्तकफानां सम्यक् स्थितिः स्वास्थ्यकरा, विकृतिः रोगकरा।”
(वात, पित्त, कफ की सम्यक स्थिति स्वास्थ्य का कारण है, और विकृति रोग का कारण।)
इस सिद्धांत के अनुसार, शरीर के अधिकांश रोग इन दोषों के असंतुलन से उत्पन्न होते हैं।
वात का कार्य – गति, संवेदन, श्वसन, मल-मूत्र का उत्सर्जन, स्नायु क्रिया आदि।
चरक संहिता (सूत्रस्थान 12/8) कहती है –
“वायु: सर्वेन्द्रियाणां उद्योगकर्ता”
(वायु सभी इन्द्रियों को सक्रिय करता है।)
कफ का कार्य – स्निग्धता, बल, रोग प्रतिरोधक क्षमता, ऊतक पोषण।
सुश्रुत संहिता (सूत्रस्थान 21/5) में उल्लेख है –
“श्लेष्मा स्थैर्यं गुरुता बलं…”
(कफ स्थिरता, भारीपन और बल प्रदान करता है।)
पित्त का कार्य – पाचन, तापमान संतुलन, दृष्टि, भूख-प्यास, बुद्धि की तीव्रता।
चरक संहिता (सूत्रस्थान 18/50) कहती है –
“पित्तं लोहितं चाग्निः…”
(पित्त ही शरीर में अग्नि का स्वरूप है, जो पाचन व ऊष्मा बनाए रखता है।)
पहलू | आधुनिक चिकित्सा | आयुर्वेद |
---|---|---|
रोग का कारण | बैक्टीरिया, वायरस | दोष असंतुलन |
उपचार | दवा, सर्जरी | दोष शोधन, आहार, जीवनशैली |
दृष्टिकोण | लक्षण-आधारित | मूल कारण-आधारित |
लक्ष्य | रोग नियंत्रण | रोग निवारण व प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाना |
यहाँ एक त्रिदोष और आधुनिक रोगों का संबंध दिखाने वाला टेबल चार्ट दिया है, जिसमें वात, पित्त, कफ दोष से उत्पन्न प्रमुख रोग शामिल हैं।
दोष (Dosha) | असंतुलन के मुख्य लक्षण | आधुनिक चिकित्सा में संबंधित रोग |
---|---|---|
वात दोष (Vata) – वायु तत्व | गैस, सूखापन, दर्द, कमजोरी, चक्कर, कब्ज | आर्थराइटिस, सर्वाइकल स्पॉन्डिलाइटिस, स्लिप डिस्क, पार्किंसन, ऑस्टियोपोरोसिस, इरिटेबल बॉवेल सिंड्रोम (IBS), न्यूरोपैथी, माइग्रेन |
पित्त दोष (Pitta) – अग्नि तत्व | शरीर में जलन, अत्यधिक प्यास, खट्टी डकार, चिड़चिड़ापन | गैस्ट्राइटिस, एसिड रिफ्लक्स (GERD), हाई ब्लड प्रेशर, त्वचा रोग (सोरायसिस, एक्जिमा), अल्सर, लिवर डिजीज, हाइपरथायरॉइडिज्म |
कफ दोष (Kapha) – जल/पृथ्वी तत्व | बलगम, भारीपन, आलस्य, सांस लेने में कठिनाई | अस्थमा, ब्रोंकाइटिस, साइनसाइटिस, मोटापा, टाइप-2 डायबिटीज, हाई कोलेस्ट्रॉल, हृदय रोग (हार्ट फेल्योर), हाइपोथायरॉइडिज्म |
आयुर्वेद मानता है कि अधिकांश रोगों की जड़ बड़ी आंत में जमा अपशिष्ट है। चरक संहिता (सिद्धिस्थान 3/6) में बस्ती (एनीमा) को “आर्धरोगहर” कहा गया है –
“बस्तिः अर्धरोगहरः”
(बस्ती कर्म आधे रोगों को दूर करने वाला है।)
एनीमा से मल व गैस निकलकर दोष संतुलित होते हैं, जिससे वात, पित्त, कफ से जुड़े अनेक रोग समाप्त हो जाते हैं
वात, पित्त, और कफ का संतुलन ही आयुर्वेदिक स्वास्थ्य का मूल है। सुश्रुत संहिता और चरक संहिता दोनों में यह स्पष्ट कहा गया है कि त्रिदोषों की सम्यक स्थिति ही रोगमुक्त जीवन देती है। घरेलू उपचार, उचित आहार-विहार और आंत की शुद्धि से अधिकांश रोग बिना दवा के भी समाप्त हो सकते हैं।
“स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणं आतुरस्य विकार प्रशमनं च।” – चरक संहिता
(स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना और रोगी के विकार का शमन करना – यही आयुर्वेदिक चिकित्सा का उद्देश्य है।)
Kalpesh Bhatia
Thanks for sharing very vital information about the body and health, if your health is ok then and then you can think and act better