मानव समाज में शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए दुष्टों का दमन आवश्यक है। सनातन धर्म के ग्रंथों में स्पष्ट उल्लेख है कि दुष्टों को क्षमा करना या उन्हें अनदेखा करना समाज के लिए घातक होता है। श्रीमद्भगवद्गीता, मनुस्मृति, रामायण और महाभारत जैसे शास्त्रों में यह सिद्धांत बार-बार दोहराया गया है कि “शांति केवल न्याय और शक्ति के संतुलन से ही स्थापित होती है।”
इस ब्लॉग पोस्ट में हम सनातन शास्त्रों के प्रमाणों के आधार पर जानेंगे कि:
- दुष्टों का दमन क्यों आवश्यक है?
- शास्त्रों में दुष्टों के प्रति क्या दृष्टिकोण बताया गया है?
- शांति क्यों केवल शक्ति के बल पर ही संभव है?
- आधुनिक समय में इस सिद्धांत की प्रासंगिकता
Table of Contents
1. दुष्टों का दमन: सनातन धर्म का स्पष्ट आदेश
1.1 श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता (4.8) में कहा है:
“परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।”
अर्थ: “सज्जनों की रक्षा और दुष्टों के विनाश के लिए, धर्म की स्थापना के लिए परमात्मा स्वयं श्रेष्ठ जीवात्माओं को युग-युग में प्रकट करते रहते हूँ।”
इस श्लोक से स्पष्ट है कि दुष्टों का विनाश धर्म की स्थापना के लिए अनिवार्य है। यदि दुष्टों को बढ़ने दिया जाए, तो समाज में अराजकता फैलती है और निर्दोष लोग पीड़ित होते हैं।
1.2 मनुस्मृति का नीतिशास्त्र
मनुस्मृति (7.20-22) में कहा गया है:
“दुष्टानां दमनं कुर्याद्रक्षणं साधुवृत्तिनाम्।
शास्त्रं च वर्तयेद्विद्वान्यथा धर्मो न हीयते।।”
अर्थ: “राजा को दुष्टों का दमन करना चाहिए और सज्जनों की रक्षा करनी चाहिए। शास्त्रों के अनुसार आचरण करना चाहिए ताकि धर्म का ह्रास न हो।”
इससे सिद्ध होता है कि दुष्टों को दंड देना केवल एक नीति नहीं, बल्कि धर्म का आदेश है।
1.3 रामायण और महाभारत के उदाहरण
- रावण का वध: भगवान राम ने रावण को मारकर धर्म की स्थापना की। यदि रावण को क्षमा कर दिया जाता, तो अधर्म बढ़ता।
- दुर्योधन का अंत: महाभारत में श्रीकृष्ण ने कौरवों के दुष्कर्मों को रोकने के लिए ही पांडवों को युद्ध के लिए प्रेरित किया।
2. शांति केवल शक्ति के बल पर ही संभव है
2.1 चाणक्य नीति: अहिंसा केवल सज्जनों के लिए
चाणक्य ने कहा:
“अहिंसा परमो धर्मः, किंतु दुष्टेषु ताडनम्।”
(अहिंसा सर्वोत्तम धर्म है, लेकिन दुष्टों के लिए दंड आवश्यक है।)
- शांति बनाए रखने के लिए कठोर निर्णय लेना पड़ता है।
- यदि अहिंसा के नाम पर दुष्टों को छोड़ दिया जाए, तो वे समाज को नष्ट कर देते हैं।
2.2 महाभारत – विदुर नीति:
महात्मा विदुर कहते हैं:
“कृते प्रतिकृतिं कुर्याद्विंसिते प्रतिहिंसितम्।
तत्र दोषं न पश्यामि शठे शाठ्यं समाचरेत्॥”
अर्थात्, जो जैसा करे, उसके साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए। दुष्ट के साथ दुष्टता करना दोष नहीं है, बल्कि आवश्यक है।
2.3 शस्त्र और शास्त्र का संतुलन
विष्णु पुराण (3.8.9) में कहा गया है:
“शस्त्रेण रक्षितं शास्त्रं शास्त्रेण रक्षितं शस्त्रम्।”
(शस्त्र से शास्त्र की रक्षा होती है और शास्त्र से शस्त्र की।)
- शस्त्र (शक्ति) के बिना शास्त्र (ज्ञान) की रक्षा नहीं हो सकती।
- जो समाज स्वयं को सुरक्षित नहीं रखता, वह नष्ट हो जाता है।
3. आधुनिक युग में दुष्ट दमन की प्रासंगिकता
आज के समय में भी यह सिद्धांत उतना ही महत्वपूर्ण है:
- आतंकवाद और अपराध: यदि आतंकवादियों या अपराधियों को कड़ी सजा नहीं दी जाती, तो वे समाज को डराते रहते हैं।
- कानून और व्यवस्था: एक मजबूत न्याय प्रणाली ही दुष्टों को रोक सकती है।
3.1 गीता का संदेश: न्याय के लिए युद्ध भी आवश्यक
गीता (2.31-38) में अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं:
“हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।।”
अर्थ: “यदि तुम युद्ध में मरोगे तो स्वर्ग(श्रेष्ठ गति) प्राप्त करोगे और यदि जीतोगे तो पृथ्वी का सुख भोगोगे। इसलिए हे अर्जुन, युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।”
इससे स्पष्ट है कि धर्मयुद्ध (न्याय के लिए युद्ध) करना पाप नहीं, बल्कि कर्तव्य है।
3.2 क्षमा और दया की सीमाएँ
सनातन धर्म में क्षमा और दया को महान गुण माना गया है, परंतु दुष्टों के मामले में इनका प्रयोग सीमित है। यदि दुष्ट को क्षमा दी जाती है, तो वह इसे कमजोरी समझकर और अधिक अत्याचार करता है। इसलिए, दुष्टों के प्रति कठोरता आवश्यक है।
4. निष्कर्ष: दुष्टों का दमन ही सच्ची शांति का मार्ग
सनातन शास्त्रों का स्पष्ट संदेश है कि:
- दुष्टों को क्षमा करना अधर्म को बढ़ावा देना है।
- शांति केवल तभी संभव है जब दुष्टों को उनके कर्मों का फल मिले।
- शस्त्र (शक्ति) के बिना शास्त्र (धर्म) की रक्षा नहीं हो सकती।
ऋग्वेद में कहा गया है:
“मायाभिरिन्द्रमायिनं त्वं शुष्णमवातिरः।”
अर्थात्, हे इन्द्र! तू मायावी शत्रु को माया से ही पराजित कर। यह दर्शाता है कि दुष्टों को उनके ही तरीके से पराजित करना चाहिए।
आज के समय में भी यदि हमें एक न्यायपूर्ण और शांतिपूर्ण समाज बनाना है, तो हमें दुष्टों के प्रति सख्त दृष्टिकोण अपनाना होगा। “सर्वे भवन्तु सुखिनः” (सभी सुखी हों) का लक्ष्य तभी पूरा होगा जब दुष्टों का दमन किया जाएगा।
सनातन धर्म में दुष्टों का दमन केवल एक नैतिक कर्तव्य नहीं, बल्कि सामाजिक और धार्मिक संतुलन बनाए रखने का अनिवार्य कर्तव्य है। वेदों, उपनिषदों, भगवद्गीता, मनुस्मृति और महाभारत जैसे ग्रंथों में यह स्पष्ट रूप से प्रतिपादित है कि अधर्म का उन्मूलन और धर्म की स्थापना के लिए दुष्टों का दमन आवश्यक है। वर्तमान स्थिति में भी हमें यही दृष्टिकोण अपनाना चाहिए I

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