
शिक्षा” (Education) और “ज्ञान” (Knowledge) — दोनों शब्द सुनने में समान लगते हैं, परंतु वैदिक दृष्टि से इनका अर्थ, उद्देश्य और प्रभाव में गहरा अंतर है। आज के युग में “शिक्षा (Education) ” शब्द सुनते ही हम विद्यालय, विश्वविद्यालय और डिग्री-सर्टिफिकेट की ओर देखते हैं।
परंतु क्या केवल पढ़-लिख लेने से मनुष्य ज्ञानी हो जाता है?
क्या ज्ञान (Knowledge) वही है जो पुस्तकों में है?
या ज्ञान वह है जो जीवन को दिशा देता है?
वेद, उपनिषद्, गीता और ऋषि-वाणी हमें सिखाते हैं कि —
“शिक्षा जीवन का उपकरण है, परंतु ज्ञान जीवन का प्रकाश।”
वेदों में “शिक्षा” शब्द का प्रयोग वेदाङ्ग के रूप में हुआ है।
ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद — इन चारों के उच्चारण, स्वर, मात्रा और संधि-विचार का जो विज्ञान है, वही शिक्षा वेदाङ्गम् कहलाता है।
“शिक्षां व्याख्यास्यामः। वर्णः स्वरः मात्रा बलं साम सन्तानः।”
— तैत्तिरीय उपनिषद् (1.2)
यहां “शिक्षा” का अर्थ है — सही रीति से सीखना, भाषा-उच्चारण और व्यवहार का प्रशिक्षण।
परंतु “ज्ञान” शब्द का प्रयोग वेद और उपनिषदों में ब्रह्म, आत्मा, सत्य और मोक्ष के बोध के रूप में हुआ है।
“विद्यया अमृतमश्नुते।” — (ईशोपनिषद् 11)
अर्थात् – सच्चा ज्ञान अमरत्व की ओर ले जाता है।
वेदों के अनुसार:
👉 शिक्षा बाह्य जगत् को जानने की प्रक्रिया है।
👉 ज्ञान आत्मा और परमात्मा को जानने का बोध है।
वैदिक समाज में शिक्षा का उद्देश्य केवल “रोज़गार” नहीं था।
उसका मुख्य उद्देश्य था —
“सत्यं वद। धर्मं चर। स्वाध्यायान्मा प्रमदः।”
— तैत्तिरीय उपनिषद् (1.11.1)
अर्थात् – सत्य बोलो, धर्म आचरण करो, स्वाध्याय से कभी विमुख मत हो।
शिक्षा से व्यक्ति में संयम, सदाचार और कर्तव्यबोध का विकास होता है।
यह मनुष्य को समाज के योग्य बनाती है।
लेकिन ज्ञान — मनुष्य को स्वयं के योग्य बनाता है।
उपनिषद कहते हैं –
“अन्धं तमः प्रविशन्ति ये अविद्यामुपासते।”
— ईशोपनिषद् 9
जो केवल बाह्य शिक्षा में लिप्त रहते हैं, वे अंधकार में प्रवेश करते हैं।
और जो शिक्षा को ज्ञान से नहीं जोड़ते, वे “अज्ञान” के अंधकार में और भी गहरे चले जाते हैं।
ज्ञान का अर्थ है —
“आत्मनं विद्धि।” — (कठोपनिषद् 1.3.12)
अपने आत्मस्वरूप को जानो।
शिक्षा हमें कर्म का मार्ग दिखाती है,
पर ज्ञान हमें कर्म का कर्ता कौन है — यह बताता है।

| आधार | शिक्षा | ज्ञान |
|---|---|---|
| स्वरूप | बाह्य (External) | आंतरिक (Internal) |
| साधन | गुरु, पुस्तक, अनुभव | ध्यान, मनन, आत्मविचार |
| उद्देश्य | जीविका, समाज-व्यवस्था | आत्मबोध, मोक्ष |
| परिणाम | दक्षता, कुशलता | प्रज्ञा, विवेक |
| काल | सीमित | शाश्वत |
| प्रेरक | बाहरी वातावरण | अंतःप्रेरणा |
| धर्म से सम्बन्ध | साधन | साध्य |
श्रीकृष्ण अर्जुन को केवल शिक्षा नहीं दे रहे थे —
वे ज्ञान दे रहे थे।
क्योंकि अर्जुन सब कुछ जानता था — युद्ध, नीति, राजनीति —
फिर भी मोह में पड़ गया।
श्रीकृष्ण कहते हैं —
“न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।” — (गीता 4.38)
इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र कुछ नहीं।
शिक्षा हमें युद्ध लड़ना सिखाती है,
पर ज्ञान हमें बताता है — किसके लिए और क्यों लड़ना है।
भारत के प्राचीन गुरुकुलों में शिक्षा केवल बौद्धिक नहीं थी।
वह त्रिविध शिक्षा थी —
इस प्रकार शिक्षा और ज्ञान का एक सुंदर संतुलन था।
गुरुजन पहले संस्कार देते थे, फिर विद्या देते थे।
क्योंकि बिना संस्कार के शिक्षा केवल अहंकार बढ़ाती है।
आज की शिक्षा-व्यवस्था केवल सूचना (Information) देती है,
परंतु प्रबोधन (Illumination) नहीं देती।
हमारे विद्यालय रोज़गार योग्य नागरिक तो बना रहे हैं,
पर आदर्श मानव नहीं बना पा रहे।
आज डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक — सब शिक्षित हैं,
परंतु समाज में असंतोष, हिंसा और भ्रष्टाचार क्यों बढ़ रहा है?
क्योंकि हमने “ज्ञान” को शिक्षा से अलग कर दिया है।
“चरित्रहीन शिक्षा पागल के हाथ में तलवार के समान है”
वेदांत कहता है —
“श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्।” — (मुण्डक उपनिषद् 1.2.12)
अर्थात् — सच्चा गुरु वही है जो न केवल विद्या-सम्पन्न हो,
बल्कि ब्रह्मनिष्ठ अर्थात् ज्ञानी भी हो।
इसका तात्पर्य यह है कि —
👉 शिक्षा जीवन के उपकरण देती है,
👉 पर ज्ञान जीवन का लक्ष्य दिखाता है।
शिक्षा हमें बाह्य संसार में सफल बनाती है,
ज्ञान हमें अंतरात्मा में शान्ति देता है।

वेद कहते है —
“विद्या और अविद्या दोनों से पार पाओ।”
यहां “अविद्या” का अर्थ केवल अज्ञान नहीं,
बल्कि भौतिक विज्ञान, कर्म, साधन और व्यवहार भी है।
अर्थात् —
👉 अविद्या से संसार की रक्षा करो,
👉 और विद्या (ज्ञान) से आत्मा की मुक्ति पाओ।
यह वैदिक दर्शन का अद्भुत संतुलन है —
जहां शिक्षा और ज्ञान दोनों पूरक हैं, विरोधी नहीं।
शिक्षा बिना ज्ञान के अधूरी है,
और ज्ञान बिना शिक्षा के अभिव्यक्त नहीं हो सकता।
शिक्षा हमें कैसे करना है बताती है,
ज्ञान हमें क्यों करना है बताता है।
शिक्षा से समाज बनता है,
ज्ञान से संस्कृति जीवित रहती है।
वेदांत का सन्देश यही है —
“विद्यया अमृतमश्नुते।”
ज्ञान ही अमरत्व की ओर ले जाता है।
आज आवश्यकता है कि हम अपनी शिक्षा-प्रणाली में फिर से “ज्ञान-आधारित शिक्षा” को पुनर्स्थापित करें —
जहां बच्चों को केवल डिग्री नहीं, दिशा दी जाए;
केवल पाठ्यक्रम नहीं, परमार्थ सिखाया जाए।
यही वैदिक सनातन शिक्षा का पुनर्जागरण है,
यही स्थितप्रज्ञ जीवन की ओर पहला कदम है।








Prof (Dr.) Rakesh Kumar Chak
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