वेद मानवता के प्राचीनतम ग्रंथ हैं, जिनमें न केवल आध्यात्मिक ज्ञान है, अपितु एक संतुलित समाज निर्माण की संपूर्ण रूपरेखा भी है। वेदों में वर्णित समाज व्यवस्था मात्र एक वर्गीकरण नहीं, बल्कि मानव जीवन के विविध गुणों, प्रवृत्तियों और कर्म के अनुसार समाज को संगठित करने की एक वैज्ञानिक, नैतिक और धार्मिक प्रक्रिया है। इसका उद्देश्य था—व्यक्ति की आत्मविकास की यात्रा को सरल बनाना तथा समाज में संतुलन, समरसता और शांति की स्थापना करना।
वेदों में समाज को चार प्रमुख वर्गों (वर्णों) में विभाजित किया गया है:
यह विभाजन जन्म के आधार पर नहीं, बल्कि गुण और कर्म पर आधारित था।
ऋग्वेद (10.90.12) में वर्ण व्यवस्था का उल्लेख ‘पुरुषसूक्त’ में आता है, जो कहता है:
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥
इसका तात्पर्य है कि समाज रूपी पुरुष के विभिन्न अंगों से विभिन्न वर्ग उत्पन्न हुए – यह एक सांकेतिक और कार्यमूलक विभाजन था, न कि भेदभावपूर्ण।
हर व्यक्ति की प्रवृत्ति, मानसिकता और क्षमता भिन्न होती है। वेदों की समाज व्यवस्था प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यता के अनुसार कार्य क्षेत्र प्रदान करती थी, जिससे समाज में कोई भी कार्य उपेक्षित न रहे।
वर्णाश्रम व्यवस्था व्यक्ति को चार पुरुषार्थों की दिशा में संतुलित रूप से विकसित होने का अवसर देती थी। उदाहरण:
वेदों में वर्ण व्यवस्था जन्म नहीं, कर्म और गुण पर आधारित थी।
श्रीमद्भगवद्गीता (4.13) भी इसकी पुष्टि करती है:
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
अर्थात् चार वर्ण गुण और कर्म के आधार पर बनाए हैं।
वर्ण व्यवस्था के साथ-साथ आश्रम व्यवस्था भी वेदों में वर्णित है, जो व्यक्ति के जीवन को चार चरणों में विभाजित करती है:
वर्ण और आश्रम मिलकर एक संपूर्ण “वर्णाश्रम धर्म” की संकल्पना देते हैं जो व्यक्ति को आत्मोन्नति की सीढ़ियों पर चढ़ने का अवसर देता है।
वेदों में वर्ण व्यवस्था व्यक्ति की प्रकृति (गुण) – यानी सत्त्व, रजस और तमस के आधार पर तय की जाती थी। जैसे:
हर व्यक्ति एक विशिष्ट योग्यता लेकर जन्म लेता है। वेदों में उस योग्यता को पहचानकर, उसे उसी दिशा में विकसित करने को प्रेरित किया गया।
वर्ण व्यवस्था ने समाज को अलग-अलग कार्यों में कुशल बना कर आपसी निर्भरता को बढ़ाया और सामाजिक स्थिरता स्थापित की। यह एक आंतरिक सामाजिक संगठन था, जिसमें सबकी भूमिका महत्वपूर्ण मानी गई।
वेदों की समाज व्यवस्था में स्त्रियों को समान अधिकार प्राप्त थे। वे:
ऋग्वेद (10.85.46) में स्पष्ट कहा गया:
सम्राज्ञी श्वश्र्वां भव सम्राज्ञी श्वशुरे भव।
ननान्दरि सम्राज्ञी भव सम्राज्ञी अद्धि देवरि॥
अर्थ: पत्नी को घर की सम्राज्ञी (स्वामिनी) कहा गया।
नहीं। वेदों में वर्ण व्यवस्था कभी भी जन्म आधारित नहीं थी। यह एक लचीली व्यवस्था थी जहाँ गुण, कर्म और शिक्षा के अनुसार कोई भी व्यक्ति किसी भी वर्ण में जा सकता था।
उदाहरण:
यह सिद्ध करता है कि वेदों में वर्ण व्यवस्था गुणप्रधान थी, न कि जन्म प्रधान।
आज जब समाज भौतिकता, जातिवाद और नैतिक पतन के संकट से गुजर रहा है, वेदों की समाज व्यवस्था फिर से प्रासंगिक हो उठती है। इसके लाभ:
यदि हम आधुनिक समाज में जन्म के बजाय कौशल, सेवा और नैतिकता के आधार पर समाज व्यवस्था को समझें, तो कई सामाजिक कुरीतियाँ स्वतः समाप्त हो जाएँगी।
वेदों में वर्णित समाज व्यवस्था कोई शोषण आधारित ढाँचा नहीं, बल्कि धार्मिक, वैज्ञानिक और व्यावहारिक प्रणाली थी, जो समाज को नैतिक, संतुलित और समरस बनाती थी। इसका मूल उद्देश्य था:
यदि आधुनिक समाज वेदों की मूल भावना के साथ समाज व्यवस्था को समझे, तो एक नव-संतुलित, समरस और सर्वांगीण विकास वाला राष्ट्र निर्मित हो सकता है।