मनुष्य कर्मशील है। कर्म करते हुए वह या तो धर्मपथ पर चलता है या अधर्म की ओर भटक जाता है। जब अधर्मजन्य कर्म होता है तो उसे शास्त्रों में पाप कहा गया है। पाप का सीधा अर्थ है – वह कर्म जो आत्मा को कलुषित करे, समाज को हानि पहुँचाए और ईश्वर के नियमों के विपरीत हो।
परंतु प्रश्न यह है कि यदि पाप हो गया है तो क्या उससे मुक्ति संभव है? और यदि संभव है तो किस प्रकार? यही विषय वेद, उपनिषद, गीता और मनुस्मृति स्पष्ट करते हैं।
ऋग्वेद में कहा गया है –
“अग्ने पावक पाप्मनः शुद्ध्यस्मत्।”
(ऋग्वेद 1.97.1)
अर्थ – हे अग्नि! तू हमें पाप से शुद्ध कर।
यहाँ स्पष्ट है कि पाप आत्मा पर धूल के समान है, जिसे शुद्ध करना आवश्यक है।
वेदों में प्रायश्चित का सबसे बड़ा साधन है –
यजुर्वेद (34.50):
“पाप्मनः शुद्धये हविः।”
अर्थ – आहुति द्वारा पाप का शोधन होता है।
छान्दोग्य उपनिषद (5.24.3) कहता है –
“यथा रथस्य रथनाभि: सर्वाणि चक्राणि संनह्यन्ते तथात्मनि सर्वे पाप्मानः नश्यन्ति।”
अर्थ – जैसे रथ की नाभि में सभी आरे मिल जाते हैं, वैसे ही आत्मज्ञान होने पर सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।
यहाँ स्पष्ट है कि ज्ञान और सत्य अनुभूति ही पाप का सबसे बड़ा प्रायश्चित है।
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं –
“अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्। साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥”
(गीता 9.30)
अर्थ – यदि कोई अत्यंत दुराचारी भी है, परंतु वह अनन्य भाव से परमात्मा की उपासना करता है तो वह साधु माना जाता है, क्योंकि उसका निश्चय शुद्ध है।
यहाँ भगवान कहते हैं कि सच्चा निश्चय, भक्ति और धर्ममार्ग का अनुष्ठान पाप का प्रायश्चित है।
“सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि।”
(गीता 4.36)
ज्ञान को नाव बताकर कहा गया है कि यह पापरूपी समुद्र को पार कर देता है।
“न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।” (गीता 3.5)
अर्थ – मनुष्य एक क्षण भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता।
परंतु यही कर्म यदि धर्म के अनुकूल है तो पुण्य कहलाता है, और यदि धर्म के विपरीत है तो पाप। पाप का फल दुख, अशांति और बंधन है। प्रायश्चित का अर्थ है – आत्मा को पाप से शुद्ध करना और धर्ममार्ग की ओर पुनः स्थापित करना।
मनुस्मृति ने पापों को दो भागों में विभाजित किया –
मनुस्मृति (11.227):
“ज्ञानं तपः शौचं मौनं प्रायश्चित्तानि वै द्विज।”
अर्थ – ज्ञान, तप, शुद्ध आचरण और मौन – ये सब प्रायश्चित के साधन हैं।
पाप तभी धुलता है जब मनुष्य भीतर से स्वीकार करे – “हाँ, मैंने गलती की।”
प्रायश्चित का वास्तविक अर्थ है – गलती को दोहराना नहीं।
समाजहित के कार्य, निर्धनों की सहायता, गौसेवा और शिक्षा-प्रसार जैसे कार्य प्रायश्चित का भाग हैं।
अंततः उपनिषद और गीता कहती हैं कि जब आत्मा का साक्षात्कार हो जाता है, तब पाप का प्रभाव पूर्णतः मिट जाता है।
आज प्रायश्चित का अर्थ केवल बाहरी कर्मकांड नहीं है, बल्कि –
उदाहरण के लिए – यदि किसी ने असत्य बोला है तो उसका प्रायश्चित है – सत्य बोलने का संकल्प और अभ्यास।
यदि किसी ने हिंसा की है तो उसका प्रायश्चित है – अहिंसा और करुणा का अभ्यास।
वेद, उपनिषद, गीता और मनुस्मृति – सभी का मत है कि पाप का प्रायश्चित संभव है।
लेकिन यह तभी होता है जब –
अंततः आत्मज्ञान और सत्य जीवन ही पाप से मुक्ति का वास्तविक उपाय है।