काम, क्रोध, मोह, लोभ, मत्सर – नरक के पांच द्वार: सनातन दृष्टिकोण से एक गहन विश्लेषण

मानव जीवन में भावनाएँ और वासनाएँ स्वाभाविक हैं, किंतु जब ये अनियंत्रित हो जाती हैं, तो व्यक्ति आध्यात्मिक दृष्टि से पतन की ओर अग्रसर हो जाता है। सनातन वैदिक धर्मग्रंथों में नरक के पाँच प्रमुख द्वार—काम, क्रोध, मोह, लोभ, मत्सर—का विशेष उल्लेख मिलता है। इन्हें “पंच महापाप” भी कहा गया है, जो आत्मा की उन्नति में सबसे बड़ी बाधाएँ हैं। इस ब्लॉग पोस्ट में हम इन पाँचों द्वारों का विस्तृत परिचय, शास्त्रीय दृष्टांत, प्रभाव, तथा उनसे मुक्ति के उपायों पर गहन विवेचना करेंगे।

नरक: शास्त्रीय अवधारणा

शास्त्रानुसार, नरक का एक स्थान नहीं, बल्कि आत्मा के भीतरी अँधेरे का प्रतीक है। जब मन इन पाँचों द्वारों का आक्रमण सहन नहीं कर पाता, तो व्यक्ति धर्ममार्ग से भटककर अधर्म के पथ पर चल पड़ता है तथा दुखों और कष्टों को भोक्ता है ।

Table of Contents


1. काम – वासना और असंयम की आग

काम का अर्थ:

‘काम’ का सामान्य अर्थ है ‘इच्छा’ या ‘वासना’। यह मूल रूप से बुरी नहीं होती, पर जब यह नियंत्रित न रहे और मनुष्य की विवेक-बुद्धि को ढँक दे, तब यह पाप का कारण बन जाती है।

शास्त्रों में उल्लेख:

भगवद्गीता (3.37) में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं –

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥

अर्थ: यह काम (वासना) ही क्रोध बन जाता है। यह रजोगुण से उत्पन्न होता है, अत्यंत भोगी, महापापी और मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है।

काम के दुष्परिणाम:

  • विवेक नष्ट हो जाता है।
  • स्त्री-पुरुषों में अनैतिक संबंध उत्पन्न होते हैं।
  • पारिवारिक, सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन में पतन आता है।

काम पर विजय कैसे पाएं?

  • ब्रह्मचर्य का पालन
  • ध्यान और संयम
  • सत्संग और धर्मग्रंथों का अध्ययन

2. क्रोध – ध्वंसक अग्नि

क्रोध का स्वरूप:

क्रोध वह मानसिक स्थिति है जो तब उत्पन्न होती है जब हमारी इच्छाएं पूरी नहीं होतीं। यह विवेक को जलाकर राख कर देता है।

शास्त्रीय दृष्टिकोण:

मनुस्मृति (2.3):

क्रोधो हि शत्रुः सर्वेषां जीविनां शाश्वतः स्मृतः।

अर्थ: क्रोध सभी जीवों का स्थायी शत्रु है।

क्रोध के दुष्परिणाम:

  • क्रोध में व्यक्ति अपनों को भी शत्रु समझ बैठता है।
  • हिंसा, हत्या, आत्मघात जैसी घटनाएँ घटती हैं।
  • मानसिक अशांति, हृदय रोग, रिश्तों में दरार।

क्रोध से बचाव के उपाय:

  • मौन साधना
  • गहरी श्वास और ध्यान
  • क्षमाशीलता का अभ्यास
  • गीता और उपनिषदों का चिंतन

3. लोभ – तृष्णा का जाल

लोभ का अर्थ:

लोभ का अर्थ है – अधिक पाने की असंतोषजनक इच्छा। यह इच्छाओं का अंतहीन कुआँ है जिसमें आत्मा गिरती जाती है।

शास्त्रों में चेतावनी:

मनुस्मृति (4.1):

न लोभाद धर्मं त्यजेत।

अर्थ: लोभ के कारण धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए।

लोभ के परिणाम:

  • भ्रष्टाचार, चोरी, छल, हिंसा
  • पारिवारिक विघटन
  • अंत में भी आत्मा असंतुष्ट

लोभ से मुक्ति के उपाय:

  • संतोष का अभ्यास
  • दान-पुण्य और सेवा
  • गृहस्थ धर्म में संतुलन
  • विवेकयुक्त धन संचय

4. मोह – अज्ञान का अंधकार

मोह का अर्थ:

मोह का अर्थ है – सांसारिक वस्तुओं, संबंधों और शरीर के साथ अंधी आसक्ति। यह आत्मा को भ्रमित कर देता है।

शास्त्रवाणी:

श्रीमद्भगवद्गीता (2.52):

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।

जब तेरी बुद्धि मोह के अंधकार से मुक्त हो जाएगी, तब तू सच्चा विवेक प्राप्त करेगा।

मोह के लक्षण और दुष्परिणाम:

  • मृत्यु के समय असहनीय पीड़ा
  • मोह के कारण आत्मा पुनर्जन्म के बंधन में
  • आत्मज्ञान और भक्ति का अभाव

मोह से छुटकारा कैसे पाएं?

  • वैराग्य का अभ्यास
  • नित्य आत्मचिंतन
  • मृत्यु और क्षणभंगुरता का स्मरण
  • सच्चे गुरु का संग

5. मत्सर – जलन और द्वेष, प्रतिस्पर्धा

मत्सर का स्वरूप:

मत्सर यानी दूसरों की उन्नति से जलन और उन्हें गिराने की भावना। यह बहुत सूक्ष्म और खतरनाक विकार है।

शास्त्रीय दृष्टिकोण:

भागवत पुराण (1.1.2):

धर्मः प्रोज्झित-कैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां।

यह धर्म केवल उन्हीं के लिए है जो ‘निर्मत्सर’ यानी द्वेषरहित हैं।

मत्सर के प्रभाव:

  • दूसरों के सुख में दुख और उनके दुख में सुख
  • समाज में घृणा, द्वेष, और वैमनस्य
  • आत्मा में अशांति और अधोगति

मत्सर पर नियंत्रण कैसे पाएं?

  • संतोष और प्रसन्नता का अभ्यास
  • सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करना
  • सत्संग व सेवा का मार्ग
  • ईश्वर पर पूर्ण विश्वास

नरक के द्वार क्यों कहे गए ये पांच विकार?

इन पाँच विकारों का मूल है अहम् और अज्ञान। ये न केवल हमें धर्म के मार्ग से भटका देते हैं, बल्कि जीव को कर्मबंधन में बाँधते हैं और पुनर्जन्म के चक्र में फँसाते हैं। इनसे युक्त व्यक्ति जीवन में कभी भी सच्चा सुख, शांति और मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता।

सनातन धर्म में कहा गया है:

“विकारों से युक्त जीवन, नरक की ओर एक खुला द्वार है।”


इन विकारों से मुक्ति – क्या है उपाय?

  1. ज्ञानयोग – शास्त्रों का स्वाध्याय और गुरु से शिक्षा
  2. भक्तियोग – ईश्वर भक्ति एवं पूर्ण समर्पण
  3. कर्मयोग – निष्काम सेवा और धर्मानुसार आचरण
  4. राजयोग – ध्यान, ध्यान, ध्यान!

निष्कर्ष:

काम, क्रोध, लोभ, मोह और मत्सर – ये केवल मनोविकार नहीं, बल्कि आत्मविकास की सबसे बड़ी बाधाएं हैं। यदि जीवन को नरक से स्वर्ग की ओर ले जाना है, तो इन पांच विकारों से मुक्ति आवश्यक है।

सनातन धर्म की शिक्षाएं केवल उपदेश नहीं, बल्कि आत्मा को शुद्ध करने का विज्ञान हैं। इनके अनुसार जीवन जीकर ही हम इन ‘नरक द्वारों’ को बंद कर सकते हैं और आत्मोन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ सकते हैं।

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