भारत (आर्यावर्त) की संस्कृति और परंपरा विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यताओं में से एक मानी जाती है। यह आर्य संस्कृति और वेदों के सिद्धांतों पर आधारित रही है। समय के प्रभाव और वेद विद्या के प्रसार में आई रुकावटों के कारण समाज में अनेक भ्रांतियाँ उत्पन्न हो गईं। इनमें से एक प्रमुख भ्रांति यह है कि अर्जुन ने अपनी ममेरी बहन सुभद्रा से विवाह किया था। इस लेख में हम इस विषय पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
इस विषय की गहन समझ के लिए इसे चार दृष्टिकोणों से देखना आवश्यक है:
मनुस्मृति में विवाह संबंधी स्पष्ट दिशा-निर्देश दिए गए हैं:
मनुस्मृति का उल्लेख: “असपिण्डा च या मातुरसगोत्र च या पितुः। सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने।।४।।”
अर्थ: यदि कन्या माता की छह पीढ़ियों तक और पिता के गोत्र में नहीं आती है, तो उसका विवाह उचित है।
गोत्र का विश्लेषण:
सुभद्रा के कुल को लेकर शास्त्रों में जितने भी प्रमाण हमें मिलते हैं उनमें अनेक भिन्नताएं हैं
पीढ़ी अंतर का विश्लेषण:
इसलिए, यह विवाह किसी भी प्रकार से अनैतिक नहीं था और पूर्णतः शास्त्रीय एवं कानूनी दृष्टिकोण से उचित था।
अर्जुन नियोग से उत्पन्न संतान थे, जिनके जैविक पिता तो इंद्र थे, लेकिन समाजिक और गोत्रीय दृष्टि से वे पांडु के पुत्र माने गए।
मत्स्य पुराण के अनुसार: नियोग से उत्पन्न संतान अपने जैविक पिता का नहीं, बल्कि उस कुल के पिता का गोत्र अपनाती है, जहाँ वह जन्म लेती है।
इसलिए, यह सोचना कि अर्जुन और सुभद्रा भाई-बहन थे और उनका विवाह अनुचित था, पूर्णतः गलत धारणा है। वेदों और शास्त्रों के अनुसार यह विवाह न केवल उचित था, बल्कि समाज में स्वीकृत भी था।
इतिहास में मामा और बुआ के पुत्र-पुत्री के विवाह के अनेकों उदाहरण मिलते हैं, परंतु यह ध्यान रखना आवश्यक है कि वे केवल शरीर के संबंध से रिश्तेदार थे, जबकि गोत्रीय दृष्टिकोण से भिन्न हो सकते थे। इस पर गहन शोध की आवश्यकता है। जब हम जैसे साधारण लोग इस प्रकार के विवाह को सहज स्वीकार नहीं करते, तो योगेश्वर श्रीकृष्ण और वेदों और शास्त्रों के ज्ञाता ऋषि-मुनि इसे कैसे मान्यता देते होंगे? यह विचारणीय प्रश्न है।
आपद्धर्म की रक्षा के लिए विपरीत परिस्थिति में कुछ विवाह हुए भी होंगे, इसकी संभावना से इनकार भी नहीं किया जा सकता। इसलिए, विभिन्न कालखंडों के बीच इतना बड़ा अंतर होने के कारण उन परिस्थितियों की सटीक कल्पना और आकलन करना आज के समय में अत्यंत कठिन है। उचित और अनुचित का निर्णय भी वर्तमान संदर्भ में संभव नहीं है, क्योंकि ऐतिहासिक और सामाजिक परिस्थितियाँ समय-समय पर बदलती रही हैं।
इतिहास में समय-समय पर तथ्यों में मिलावट और फेरबदल भी हुई है, जिसके कारण शास्त्रीय प्रमाणों में भी भिन्नताएँ मिलती हैं। वेदों की शिक्षाएँ समय के साथ दुर्लभ हो गईं, जिससे सत्य और मिथ्या के बीच अंतर कर पाना कठिन हो गया। इसलिए किसी भी तथ्य पर आँख मूँदकर विश्वास करने के बजाय उसे तर्क और बुद्धि की कसौटी पर कसना आवश्यक है। सत्य की खोज में तर्क, शास्त्र और प्रमाणों का सम्यक अध्ययन करना चाहिए।
आइए, सत्य की खोज में वेदों की ओर लौटें!