
भारत की महान वैदिक परंपरा में शास्त्रों का स्थान सर्वोपरि है। वेद, उपनिषद, स्मृतियाँ, और अन्य धर्मग्रंथ न केवल धार्मिक, बल्कि सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन को दिशा देने वाले अमूल्य स्रोत हैं। लेकिन समय के साथ इन शास्त्रों में कुछ ऐसे अंश जोड़े गए जिन्हें “प्रक्षिप्त” या “मिलावट” कहा जाता है। ये अंश शास्त्रों के मूल सिद्धांतों के विपरीत होते हैं और अक्सर भ्रम तथा विवाद का कारण बनते हैं।
यह ब्लॉग इस महत्वपूर्ण विषय पर केंद्रित है कि शास्त्रों में मिलावट क्यों और कैसे हुई, प्रक्षिप्त श्लोकों को पहचानने के मानदंड क्या हैं, और इन समस्याओं का समाधान कैसे किया जा सकता है।
प्रक्षिप्त श्लोक ऐसे श्लोक या अंश हैं जो मूल शास्त्रों में शामिल नहीं थे लेकिन बाद में विभिन्न उद्देश्यों से जोड़े गए। ये मिलावटें शास्त्र के मूल स्वरूप और उद्देश्य को विकृत करती हैं।
उदाहरण: मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण तथा महाभारत आदि अनेकों ग्रंथो में वेदविरोधी जातिवादी श्लोक, जिनका उद्देश्य सामाजिक असमानता को बढ़ावा देना था, स्पष्ट रूप से प्रक्षिप्त हैं।
शास्त्रों में मिलावट का इतिहास सदियों पुराना है। इसके पीछे सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक कारण रहे हैं।
कुछ वर्गों ने शास्त्रों को अपने स्वार्थ और सत्ता के साधन के रूप में उपयोग किया। इसके लिए उन्होंने मनुस्मृति और अन्य धर्मग्रंथों में ऐसे श्लोक जोड़े जो भेदभावपूर्ण और उनके हितों को समर्थन देने वाले थे।
धर्म को नियंत्रण में रखने के लिए शास्त्रों में प्रक्षिप्त अंश जोड़े गए। इनका उद्देश्य एक विशेष विचारधारा को स्थापित करना था, भले ही वह मूल शास्त्र के सिद्धांतों के विपरीत हो।
शास्त्रों के मौखिक रूप से हस्तांतरित होने के कारण समय के साथ उनकी सामग्री में विकृतियाँ आईं। लिखित रूप में आने तक इनमें कई अंश जोड़े गए।
विदेशी आक्रमणों और सांस्कृतिक संघर्षों के दौरान शास्त्रों की सामग्री में बदलाव किए गए।
कुछ स्थानों पर विद्वानों और पुरोहितों ने अपनी व्यक्तिगत राय और अज्ञानता के कारण शास्त्रों में मिलावट की।
शास्त्रों में प्रक्षिप्त श्लोकों को पहचानना आसान नहीं है, लेकिन विद्वानों ने इसके लिए कुछ मानदंड स्थापित किए हैं।
वेद धर्म का मूल स्रोत हैं। यदि कोई श्लोक वेदों के सिद्धांतों के विपरीत है, तो वह प्रक्षिप्त माना जा सकता है।
उदाहरण: वेद “सर्वे भवन्तु सुखिनः” (सभी सुखी हों) का सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं। जो श्लोक असमानता या अन्याय को बढ़ावा देते हैं, वे प्रक्षिप्त हो सकते हैं।
शास्त्रों में परस्पर विरोधाभासी बातें नहीं हो सकतीं। यदि किसी शास्त्र में अंतर्विरोध पाया जाता है, तो यह प्रक्षिप्तता का संकेत है।
यदि कोई श्लोक अपने प्रसंग से मेल नहीं खाता या संदर्भ से हटकर है, तो वह प्रक्षिप्त हो सकता है।
शास्त्रों की भाषा और शैली विशिष्ट होती है। यदि किसी श्लोक की भाषा या शैली शेष ग्रंथ से भिन्न है, तो वह प्रक्षिप्त हो सकता है।
शास्त्रों में बार-बार एक ही बात दोहराई गई हो, तो यह प्रक्षिप्तता का संकेत हो सकता है। मौलिक ग्रंथों में विचारों की पुनरावृत्ति कम होती है।
शास्त्र का कोई भी भाग जो वेदों के सिद्धांतों के विपरीत हो, प्रक्षिप्त माना जाता है।
पुराने टीकाकारों, ग्रंथों, और शिलालेखों से तुलना कर भी प्रक्षिप्त अंशों की पहचान की जा सकती है।
मनुस्मृति में कई ऐसे परस्पर विरोधी श्लोक हैं जो जातिवाद और स्त्री-विरोधी विचारों को बढ़ावा देते हैं। ये श्लोक वेदों के सिद्धांतों से मेल नहीं खाते और स्पष्ट रूप से प्रक्षिप्त हैं। जिन्हें विधर्मियों द्वारा समय समय पर अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए महर्षि मनु के नाम से जोड़ा गया है I
शंबूक वध, सीता का वनवास आदि अनेक प्रक्षिप्त अंशों ने वाल्मीकि रामायण तथा द्रौपदी के पांच पति, अभिमन्यु से भेदभाव जैसे प्रसंग महाभारत के महत्व को कम किया है I
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने वेदों को धर्म का मूल स्रोत बताया और शास्त्रों की शुद्धता को पुनः स्थापित करने के लिए प्रयास किया। उन्होंने मनुस्मृति के प्रक्षिप्त अंशों को हटाने की वकालत की।
गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. सुरेंदर कुमार ने मनुस्मृति में मौलिक और प्रक्षिप्त श्लोकों को अलग करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया।
कई अन्य भारतीय और विदेशी विद्वानों ने शास्त्रों की प्रक्षिप्तता पर शोध किया और उनके मौलिक स्वरूप को पुनः प्रस्तुत किया।
वेदों को आधार मानकर शास्त्रों की शुद्धता को पुनः स्थापित किया जा रहा है।
पुराने ग्रंथों, शिलालेखों, और मौलिक टीकाओं का अध्ययन कर प्रक्षिप्त अंशों को हटाने के लिए तकनीक का उपयोग हो रहा है।
लोगों को शास्त्रों के प्रक्षिप्त और मौलिक अंशों के बीच अंतर समझाने के लिए अभियान चलाए जा रहे हैं।
शास्त्रों की शुद्धता केवल विद्वानों की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि समाज के हर व्यक्ति को इसके लिए जागरूक होना चाहिए। प्रक्षिप्त अंशों को पहचानकर उन्हें हटाना और शास्त्रों के मूल स्वरूप को समझना आवश्यक है।
शास्त्र भारतीय संस्कृति की आत्मा हैं, लेकिन प्रक्षिप्त अंशों ने उनकी मूल भावना को विकृत किया है। प्रक्षिप्त श्लोकों की पहचान और उन्हें हटाने का कार्य न केवल धार्मिक दृष्टि से, बल्कि सामाजिक और नैतिक दृष्टि से भी अनिवार्य है।
आज, जब समाज जातिवाद, भेदभाव और अन्य समस्याओं से जूझ रहा है, तो शास्त्रों को उनके शुद्ध स्वरूप में समझना और अपनाना समय की माँग है। यह कार्य समाज में समानता, न्याय, और मानव कल्याण की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करेगा।
नारा:
“शास्त्रों को शुद्ध करें, समाज को समृद्ध करें।”







