
विवाह भारतीय संस्कृति में केवल एक सामाजिक अनुबंध नहीं, बल्कि संसार का सबसे पवित्र संस्कार माना गया है। वैदिक साहित्य विवाह को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों की पूर्ति का साधन बताता है। पति-पत्नी केवल दो शरीर नहीं, बल्कि दो आत्माओं और दो कुलों का मिलन होते हैं।
ऋग्वेद में स्त्री से कहा गया है:
“सम्राज्ञी श्वशुरे भव, सम्राज्ञी श्वश्व्र्याम्।
ननान्द्री सम्राज्ञी भव, सम्राज्ञी अधि देवृषु॥” (ऋग्वेद 10.85.46)
अर्थात – हे स्त्री! तू अपने ससुराल में सब पर आदर और सम्मान पाने वाली रानी के समान बनी रह।
स्पष्ट है कि दाम्पत्य जीवन का मूल आधार सम्मान, सहयोग और प्रेम है। अब आइए देखते हैं कि शास्त्रों और आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार सफल वैवाहिक जीवन के लिए कौन से वैदिक नियम आवश्यक बताए गए हैं।
पति-पत्नी को कभी भी एक-दूसरे के प्रति कटु, अपमानजनक या अप्रिय व्यवहार नहीं करना चाहिए।
गीता (16.2):
“अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।”
(अहिंसा, सत्य, क्रोध-न होना, शांति और परनिन्दा से बचना – यह दिव्य गुण हैं।)
यदि पति-पत्नी इन गुणों को अपनाएँ तो आपसी कलह का स्थान विश्वास और शांति ले लेता है।
सफल वैवाहिक जीवन का रहस्य है कि पति-पत्नी एक-दूसरे को देखकर प्रसन्न हों। यह सकारात्मक दृष्टिकोण रिश्ते को मजबूत करता है।
मनुस्मृति (3.60):
“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।”
जहाँ स्त्रियों का सम्मान होता है, वहाँ देवता भी प्रसन्न रहते हैं।
आधुनिक शोध भी बताते हैं कि स्माइल और सकारात्मक ऊर्जा संबंधों की आयु को बढ़ाते हैं।
गृहस्थ आश्रम त्याग और सेवा पर आधारित है।
महाभारत (शान्ति पर्व 144.25):
“पतिव्रता धर्मपत्नी धर्मकामार्थसाधिनी।”
धर्मपत्नी वही है, जो पति की सेवा और धर्म की साधना में सहभागी बने।
इसी प्रकार पति को भी पत्नी की सेवा और सहयोगी बनना चाहिए।
पुरुष को चाहिए कि वह घर के कार्यों में स्त्री को प्रधानता दे और गृह संचालन का अधिकार उसे सौंपे। यह स्त्री को गृहलक्ष्मी का सम्मान देता है।
ऋग्वेद (10.85.27):
“गृहपतिर्नः प्रजापतिः।”
गृह का संचालन पति-पत्नी दोनों मिलकर करें।
आज के आधुनिक समाज में भी जब पति और पत्नी दोनों गृहकार्य को साझा करते हैं, तो वैवाहिक जीवन अधिक सुखी होता है।
पति को चाहिए कि वह –
अथर्ववेद (14.1.20):
“पतिं प्रियं प्रजायै ते सौभागं सन्तु ते सदा।”
अर्थात – पति पत्नी के लिए प्रिय और सौभाग्यदायक बने।
आधुनिक समाजशास्त्र भी कहता है कि emotional validation (सराहना करना, ध्यान देना) विवाहिक संतोष का मूल है।
पत्नी को भी चाहिए कि वह –
मनुस्मृति (5.154):
“यथा धर्मे तथा च अर्थे कामे चानुपतिष्ठति।
एवं न स्त्री विभर्तव्या भार्या शीलवती सदा॥”
स्त्री यदि धर्म, अर्थ और काम – इन तीनों पुरुषार्थों में पति के साथ सहयोगी बने तो जीवन सुखी रहता है।
पति-पत्नी का आचरण केवल उनके संबंधों तक सीमित नहीं, बल्कि भावी पीढ़ी तक जाता है।
छान्दोग्य उपनिषद (6.1.6):
“यथा संकल्पयते तथा भवति।”
संतान वैसी ही होती है जैसी माता-पिता की मानसिक स्थिति और संकल्प।
आधुनिक epigenetics भी सिद्ध करता है कि माता-पिता का मानसिक स्वास्थ्य और संबंधों की गुणवत्ता सीधे संतान पर असर डालते हैं।
आज की व्यस्त जीवनशैली में पति-पत्नी के बीच संवाद की कमी, तनाव और असमान अपेक्षाएँ विवाह को कमजोर कर देती हैं।
समाधान है –
सफल वैवाहिक जीवन के वैदिक नियम यही हैं कि पति-पत्नी –
ऐसे दाम्पत्य जीवन से न केवल पति-पत्नी सुखी होते हैं, बल्कि उनसे उत्पन्न होने वाली संतान भी धार्मिक, संस्कारी और श्रेष्ठ गुणों वाली होती है।
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dr gajanan shankr narkar
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