संसार की सबसे रहस्यमयी अवधारणाओं में से एक है – माया। यह शब्द हर धार्मिक, दार्शनिक और आत्मबोध के मार्ग में सामने आता है।
माया का अर्थ क्या है?
क्या यह कोई भ्रम है? एक शक्ति है? एक सृष्टिकर्ता की चाल?
क्या माया असत्य है? या वही सत्य को छिपाने वाली परत है?
इस ब्लॉग पोस्ट में हम वेद, उपनिषद, गीता, वेदांत और योगदर्शन के माध्यम से माया को समझने का प्रयास करेंगे।
संस्कृत व्युत्पत्ति:
“मा” (नहीं) + “या” (जो है) = माया
अर्थात – “जो वस्तुतः नहीं है, फिर भी प्रतीत होता है।”
माया वह शक्ति है जो सत्य (ब्रह्म) को ढँककर असत्य (जगत) को सत्य के रूप में प्रस्तुत करती है।
“इन्द्र मायाभिः पुरुरूप ईयते”
अर्थात – इन्द्र अपनी माया से अनेक रूपों में प्रकट होते हैं।
यहाँ माया का अर्थ “दिव्य शक्ति” है जिससे ईश्वर अनेक रूपों में सृष्टि का संचालन करते हैं।
मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्।
अर्थात – माया को प्रकृति (सृष्टि की कारणशक्ति) जानो, और मायावी को ईश्वर।
यह श्लोक स्पष्ट करता है कि ईश्वर ही माया के अधिष्ठाता हैं, और माया उनके नियंत्रण में है।
“दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥”
भावार्थ: यह मेरी त्रिगुणमयी माया अत्यंत दुस्तर है। केवल वे ही इसे पार कर सकते हैं जो मेरी शरण में आते हैं।
👉 यहाँ गीता माया को एक ईश्वरीय शक्ति मानती है जो सत्व, रज और तम – इन तीन गुणों से बनी है।
उदाहरण: रस्सी को अंधेरे में सांप समझना – यह माया का काम है।
माया त्रिगुणात्मक है – यह तीन गुणों से बनी है:
गुण | विशेषता | परिणाम |
---|---|---|
सत्त्व | ज्ञान, शांति, प्रकाश | संतुलन, सत्य की ओर झुकाव |
रज | क्रिया, इच्छा, बेचैनी | इच्छाओं की उत्पत्ति, मोह |
तम | अज्ञान, आलस्य, भ्रम | भ्रम, अधर्म, अज्ञानता |
👉 हर व्यक्ति की चेतना पर ये तीनों गुण प्रभाव डालते हैं। माया का नियंत्रण इन्हीं से होता है।
वास्तविकता | माया के कारण हम क्या मानते हैं |
---|---|
आत्मा अमर है | शरीर ही सब कुछ है |
ब्रह्म निराकार है | मूर्तियों में ही ईश्वर है |
संसार क्षणिक है | संसार ही लक्ष्य है |
सच्चा सुख भीतर है | सुख वस्तुओं में है |
यह भ्रम ही माया है। यह आत्मा को उसके शुद्ध स्वरूप से भटका देता है।
पातंजलि योगसूत्र में प्रकृति (प्रकृति = माया) को तीन गुणों से युक्त बताया गया है।
योग का उद्देश्य – चित्तवृत्तियों का निरोध कर माया से परे जाकर आत्मा का साक्षात्कार करना है।
प्रश्न: अगर माया भ्रम है, तो ईश्वर ने इसे क्यों रचा?
उत्तर: माया ही वह माध्यम है जिसके द्वारा:
माया से बाहर निकलना आसान नहीं है। परंतु वैदिक मार्गदर्शन हमें चार प्रमुख उपाय देता है:
“ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः”
“माया मत्रं जगत्सर्वं” – संपूर्ण जगत माया मात्र है।
“मायैव सर्वं खलु कल्पितं ते” – सब कुछ माया का ही कल्पना है।
माया कोई वस्तु नहीं, बल्कि एक शक्ति है।
यह ब्रह्म की लीला है जो आत्मा को संसार में फँसाकर उसके अपने स्वरूप से विमुख करती है।
परंतु यही माया जब विवेक और ज्ञान द्वारा छिन्न होती है, तब जीव ब्रह्म को पहचानता है।
“माया से मुक्ति ही मोक्ष है।”
उत्तर: माया ब्रह्म की शक्ति है जो भ्रम उत्पन्न करती है। भ्रम माया का परिणाम है।
उत्तर: नहीं, माया ईश्वर की शक्ति है। वह उससे अलग नहीं है पर अधीन है।
उत्तर: नहीं, उसे समझना और पार करना चाहिए।
यदि आप इस विषय को और गहराई से समझना चाहते हैं, तो हमारी ऑनलाइन “वैदिक जीवन प्रबंधन ऑनलाइन क्लास” श्रृंखला से जुड़ें। या इस पोस्ट को शेयर कर दूसरों तक भी वैदिक ज्ञान पहुँचाएँ।
बिन्दु बसुमतारीbinanda
ॐ बहुत सुंदर वाणी है पढ़कर मनको शान्ति मिली है