
आज जब दीपावली का पर्व आता है तो हर पंथ, हर सम्प्रदाय अपनी कल्पना के अनुसार कोई न कोई कथा जोड़ देता है।
कोई कहता है — “श्रीरामचन्द्र जी आज के दिन लंका विजय के बाद अयोध्या लौटे थे।”
जैन कहते हैं — “आज के दिन भगवान महावीर जी ने निर्वाण प्राप्त किया।”
सिख कहते हैं — “आज के दिन गुरु हरगोबिंद जी को जेल से मुक्ति मिली।”
और बौद्ध कहते हैं — “यह दिन भगवान बुद्ध के किसी चमत्कार का स्मरण है।”
परंतु प्रश्न उठता है —
👉 क्या श्रीरामचन्द्र जी ने अपने बचपन में दीपावली नहीं मनाई थी?
👉 क्या भगवान महावीर जी ने बाल्यकाल में दीपावली नहीं देखी थी?
👉 क्या गुरु नानक देव जी से पहले किसी ने दीपावली नहीं मनाई थी?
👉 क्या उनके पूर्वजों ने इस दिन दीप नहीं जलाए थे?
यदि यह पर्व केवल किसी एक व्यक्ति या घटना से संबंधित होता, तो उसके पूर्वजों द्वारा यह उत्सव मनाया ही नहीं जाता।
इससे स्पष्ट है — दीपावली का मूल कारण किसी मानव-घटना में नहीं, बल्कि सृष्टि के मूल चक्र में निहित है।
वेद कहते हैं कि यह सृष्टि लगभग 1,96,08,53,125 वर्ष पूर्व प्रारंभ हुई थी।
और सृष्टि के साथ ही ऋतु-चक्र, फसल, अग्नि, यज्ञ और उत्सव की परंपरा प्रारंभ हुई।
क्योंकि मनुष्य के जीवन का पहला उद्देश्य है — ईश्वर की कृतज्ञता प्रकट करना।
दीपावली का मूल कारण किसी देवता, अवतार या गुरु नहीं,
बल्कि प्रकृति का वरदान — नवीन अन्न की प्राप्ति है।
ऋषियों ने कहा है —
“अन्नं ब्रह्मेति।” (तैत्तिरीय उपनिषद 3.2)
— अन्न ही ब्रह्म है।
अर्थात् जब नई फसल पककर खेतों में आती है,
तो किसान ईश्वर के प्रति कृतज्ञ होकर यज्ञ करता है।
इसी यज्ञ को वेदों में कहा गया —
“शारदीय नवसस्येष्टि यज्ञ”।

‘नवसस्येष्टि’ तीन शब्दों से बना है —
नव = नया, सस्य = अन्न / फसल, इष्टि = यज्ञ।
अर्थात् जब शरद ऋतु में नई फसल आती है,
तो किसान उस नवीन अन्न का यज्ञ कर ईश्वर को धन्यवाद देता है।
यह कोई धार्मिक दिखावा नहीं, बल्कि वैज्ञानिक और सामाजिक कृतज्ञता का प्रतीक है।
इस दिन किसान अपने खेतों से नई फसल लेकर यज्ञ में अर्पण करते हैं —
“हे परमेश्वर! तूने वर्षा की, तूने सूर्य दिया, तूने भूमि को उपजाऊ बनाया, तूने मेरे श्रम को फल दिया — तेरे प्रति कृतज्ञ हूँ।”
इसी दिन अन्नागार (भंडार) में पहला अन्न-दीपदान किया जाता है।
यही परंपरा आगे चलकर “दीपावली” कहलाने लगी।
‘यज्ञ’ शब्द का अर्थ केवल हवन करना नहीं,
बल्कि वेदों के अनुसार यज्ञ का अर्थ है —
“देवपूजा, संगतिकरण, दान।” (शतपथ ब्राह्मण 1.1.1)
यही तीनों क्रियाएं दीपावली में होती हैं —
1️⃣ देवपूजा — परमात्मा के प्रति कृतज्ञता।
2️⃣ संगतिकरण — समाज का मिलन, सामूहिक यज्ञ।
3️⃣ दान — अन्न और वस्त्र का वितरण।
इसलिए दीपावली न तो किसी व्यक्ति की विजय का पर्व है,
न किसी मृत्यु का स्मरण,
बल्कि जीवन के पुनर्जागरण का उत्सव है।
वेदों में अन्न-उत्सवों का विशेष उल्लेख है।
ऋग्वेद (10.117) में कहा गया —
“जो दूसरों के साथ अन्न बांटता है, वही सच्चा मनुष्य है।”
इसलिए दीपावली के दिन किसान केवल अपने परिवार के साथ नहीं,
बल्कि पूरे समाज के साथ फसल की प्रसन्नता साझा करता था।
गाँव के सभी लोग एकत्र होकर यज्ञ करते, फिर सामूहिक भोज होता,
और रात को सभी अपने घरों में दीप जलाते —
जो “प्रकाश, समृद्धि और ऋतु परिवर्तन” का प्रतीक है।
दीपावली का समय शरद ऋतु में आता है — जब वातावरण शुष्क, ठंडा और संक्रमणकारी हो जाता है।
इस समय अग्नि (दीप) जलाना, घर की सफाई, धूप-दान, गोमय लेपन —
ये सब वैज्ञानिक और स्वास्थ्य-संरक्षण के उपाय हैं।
इसलिए दीपावली केवल धार्मिक नहीं, बल्कि आयुर्वैज्ञानिक और पर्यावरणीय पर्व भी है।
वेद कहते हैं कि सृष्टि का आरंभ अंधकार से हुआ और प्रकाश में परिवर्तित हुआ।
ऋग्वेद 10.129 (नासदीय सूक्त)
“नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं… तम आसीत्तमसा गूळमग्रे।”
— प्रारंभ में अंधकार ही था, फिर ब्रह्म ने प्रकाश उत्पन्न किया।
वह क्षण जब प्रथम बार तमस से ज्योति प्रकट हुई —
वही “वैदिक दीपावली” का मूल क्षण है।
इसलिए वैदिक ऋषियों ने इस दिन को सृष्टि-स्मृति दिवस कहा —
अर्थात् सृष्टि में प्रकाश के उदय की स्मृति।
‘दीप’ का अर्थ केवल लौ नहीं,
बल्कि ज्ञान और चेतना का प्रतीक है।
बृहदारण्यक उपनिषद् (4.3.6) —
“आत्मा वा ज्योतिः।” — आत्मा ही प्रकाश है।
जब हम दीप जलाते हैं, तो हम अपने भीतर के अंधकार को मिटाने की प्रतिज्ञा करते हैं।
वेदों में कहा गया —
“तमसो मा ज्योतिर्गमय।”
— हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो।
अतः दीपावली का वास्तविक तात्पर्य है —
बाह्य दीप के माध्यम से आंतरिक दीप को प्रज्वलित करना।
अब स्पष्ट है कि श्रीराम, महावीर, गुरु हरगोबिंद या अन्य महापुरुषों से पहले भी यह पर्व मनाया जाता था।
उन्होंने भी अपने काल में इस दिन को नवसस्येष्टि के रूप में मनाया होगा।
श्रीराम के पिता राजा दशरथ भी वेदज्ञ थे — वे यज्ञों के द्वारा ही शासन करते थे।
रामायण में “अश्वमेध यज्ञ” और “पुत्रकामेष्टि यज्ञ” का उल्लेख मिलता है —
इससे सिद्ध है कि नवसस्येष्टि यज्ञ भी उस काल में प्रचलित था।
महावीर जी के समय में भी आर्य परंपरा प्रबल थी,
अतः वे स्वयं या उनके समाज ने भी इस दिन को अन्न-उत्सव और यज्ञ दिवस के रूप में माना होगा।
गुरु नानक देव जी का भी जीवन वेद-प्रेरित था — उन्होंने “कर्म, सेवा और दान” का उपदेश दिया।
अतः दीपावली का वास्तविक उद्देश्य — कर्म, दान और प्रकाश — सबके लिए समान है।
वाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्ड के अंत में इस विषय का उल्लेख मिलता है।
वाल्मीकि जी लिखते हैं कि रावण का वध चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को हुआ था — जिसे आज हम रामनवमी कहते हैं। अर्थात् श्रीराम का जन्मदिन और रावण-वध-दिवस दोनों चैत्र मास के शुक्ल नवमी को ही आते हैं, परंतु वर्षों का अंतर था। विभीषण के राज्याभिषेक के पश्चात उन्हें लगभग 25-30 दिन लगे अयोध्या वापस लौटने में I भारत ने उन्हें वचन दिया था कि अगर उन्हें अयोध्या वापस लौटने में 14 वर्ष से 1 दिन भी अधिक हुआ तो वहां शरीर त्याग कर देंगे I इसी कारण उन्हें 14 वर्ष की अंतिम तारीख तक अयोध्या पहुंचना ही था I
इस प्रकार वाल्मीकि रामायण के अनुसार
इन दोनों के बीच लगभग 6 महीने का अंतर है।
अर्थात् दीपावली का दिन (कार्तिक अमावस्या) श्रीराम के अयोध्या लौटने का प्रतीक नहीं I श्रीराम का आगमन अयोध्या में ज्येष्ठ माह के आसपास हुआ है।
सनातन धर्म किसी एक व्यक्ति के जन्म एवं मृत्यु की तिथि पर आधारित नहीं।
वह सृष्टि के नियमों पर आधारित है — जो सब पर समान रूप से लागू होते हैं।
इसलिए दीपावली का अर्थ किसी ऐतिहासिक घटना को मनाना नहीं,
बल्कि सृष्टि, ऋतु और अन्न के चक्र को स्मरण करना है।
हाँ —
महापुरुषों की स्मृति में उनके उपदेशों को याद करना उचित है,
पर मूल सत्य को भुलाकर दीपावली को किसी विशेष पंथ का पर्व बना देना
वैदिक परंपरा का अपमान है।
दीपावली का वैदिक अर्थ है — अंधकार (अज्ञान) से प्रकाश (ज्ञान) की ओर जाना।
यह बाहरी दीपों से आरंभ होकर भीतर के दीप तक पहुँचने की यात्रा है।
वेद कहते हैं —
“यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः।” (कठोपनिषद्)
— जब मन के सभी कामना दीप बुझ जाते हैं, तब आत्मा का असली प्रकाश प्रकट होता है।
अतः दीपावली मनाना है —
दीपावली न तो किसी व्यक्ति का जन्मदिन है,
न किसी की विजय यात्रा का स्वागत।
यह सृष्टि के प्रारंभ से अब तक चलता आया आर्य संस्कृति का उत्सव है —
जहाँ ईश्वर, प्रकृति और मनुष्य तीनों एक संगम में मिलते हैं।
इसका मूल है —
आज जब हम दीप जलाते हैं,
तो याद रखें — यह केवल तेल और बाती नहीं,
बल्कि ऋषियों की उस वैदिक चेतना का प्रतीक है
जो हर अंधकार को मिटाकर सत्य, ज्ञान और प्रेम का प्रकाश फैलाती है।
“तमसो मा ज्योतिर्गमय।”
— यही है वैदिक दीपावली का सच्चा संदेश।







