यदि ईश्वर करुणामय है तो सृष्टि में इतना दुःख क्यों है? यह प्रश्न केवल आधुनिक चिंतन नहीं, अपितु ऋषियों, मुनियों, तत्त्वचिंतकों, और महान दार्शनिकों के मन में भी उत्पन्न हुआ था। युद्ध, बीमारी, मृत्यु, असमानता, पीड़ा, दरिद्रता, अन्याय — ये सब इस प्रश्न को और तीव्र बनाते हैं।
इस लेख में हम वेद, उपनिषद, भगवद्गीता, दर्शन शास्त्र, और आधुनिक विज्ञान तथा मनोविज्ञान की दृष्टि से इस शाश्वत प्रश्न का समाधान प्रस्तुत करेंगे।
वेद दुख को “अविद्या” या “अज्ञान” का परिणाम मानते हैं।
👉 ऋग्वेद में कहा गया है:
“तमसो मा ज्योतिर्गमय”
— बृहदारण्यक उपनिषद् 1.3.28
(अर्थ: मुझे अंधकार (अविद्या, दुख) से ज्ञान (प्रकाश) की ओर ले चलो)
स्पष्टीकरण:
वेद कहते हैं कि सृष्टि का उद्देश्य ‘अनुभव’ है — और यह अनुभव तभी संभव है जब व्यक्ति सुख और दुख दोनों को जान सके। यदि केवल सुख ही हो, तो उसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। इसलिए, दुख आत्मा के अनुभव-विकास की प्रक्रिया का एक अंग है।
👉 मुण्डक उपनिषद कहता है:
“द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया…”
(दो पक्षी — आत्मा और जीव — एक ही वृक्ष पर बैठे हैं। एक फल खाता है (दुख-सुख अनुभव करता है), दूसरा केवल देखता है।)
इस श्लोक के माध्यम से यह बताया गया है कि जीवात्मा माया के कारण फल (दुख-सुख) का भोक्ता बनती है, जबकि परमात्मा साक्षी रूप में स्थित रहता है।
मुख्य कारण:
भगवद गीता दुख को मानसिक भ्रम और ममता का परिणाम मानती है।
👉 श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं:
“हे अर्जुन! सुख-दुख, सर्दी-गर्मी, लाभ-हानि तो अस्थायी हैं, इन्हें सहन करो।” — गीता 2.14
“अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।” — गीता 2.11
(तू जिनके लिए शोक कर रहा है, वे शोक करने योग्य नहीं हैं)
महर्षि पतंजलि के योगसूत्र में दुख के पाँच मूल कारण (क्लेश) बताए गए हैं:
“अविद्या-अस्मिता-राग-द्वेष-अभिनिवेशाः पंचक्लेशाः”
— योगसूत्र 2.3
👉 जब तक ये पंच क्लेश जीव में विद्यमान हैं, तब तक दुख बना रहेगा। योग के अभ्यास द्वारा ही इनका क्षय होता है।
“He who has a why to live can bear almost any how.” – Nietzsche
वेद केवल दुख के कारणों का विश्लेषण ही नहीं करते, बल्कि उनके समाधान भी प्रस्तुत करते हैं। ऋग्वेद में एक अत्यंत प्रभावशाली मंत्र आता है जो शारीरिक, मानसिक और सामाजिक दुखों को शांत करने की प्रार्थना के रूप में प्रयुक्त होता है:
ऋग्वेद 10.137.3
“अभि त्वा सूक्तैः शमयामि वातापेमसि शमितः स्याम।
शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे॥”
“हे रोग व दुख! मैं तुझे वेद मंत्रों के प्रभाव से शांत करता हूँ।
तू शांत हो, हम भी शांति को प्राप्त हों।
हमारे लिए और समस्त प्राणियों के लिए — दोपद (मनुष्य) और चतुष्पद (पशु) — शुभता और शांति हो।”
आज के युग में जब मानसिक तनाव, चिंता और सामाजिक विघटन बढ़ रहा है, तो इस प्रकार के वैदिक मंत्र मनोवैज्ञानिक उपचार, ध्यान और प्रार्थना चिकित्सा में अत्यंत सहायक हो सकते हैं। कई योग एवं आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धतियाँ इन्हें मंत्र चिकित्सा (Mantra Healing) के रूप में प्रयोग करती हैं
सनातन धर्म के अनुसार, हर दुख का कारण कोई पूर्वकर्म है।
👉 मनुस्मृति में कहा गया है:
“सर्वे कर्माणि जन्तूनां शुभाशुभफलोद्भवाः।”
(सभी प्राणी अपने कर्मों के अनुसार सुख-दुख पाते हैं)
दुख का मुख्य कारण यह है कि हम अनित्य वस्तुओं से नित्य सुख की अपेक्षा करते हैं।
“संसार दुःखमय है, क्योंकि सब कुछ नश्वर है।”
वेदों में भी यही बात ‘अनित्यता’ के रूप में बताई गई है।
“यद्नश्वरं तददुखरूपं” — (जो नश्वर है, वह दुखदायक है)
इसलिए दुख से बचना है, तो स्थायी तत्व — आत्मा या ब्रह्म — की ओर जाना चाहिए।
यह प्रश्न प्रायः पूछा जाता है – “क्या भगवान ने दुखों से भरी सृष्टि बनाई है?”
👉 उत्तर: नहीं।
ईश्वर ने नियमों से युक्त एक न्यायपूर्ण सृष्टि बनाई है।
हर आत्मा स्वतंत्र है — वह जैसा कर्म करेगी, वैसा फल पाएगी।
“नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।” — गीता 5.15
(ईश्वर किसी के पाप या पुण्य को नहीं लेता। हर आत्मा स्वयं उत्तरदायी है)
दुख एक दंड नहीं, अपितु आत्मा की यात्रा में एक अवसर है —
👉 सीखने का, बढ़ने का, और अपने शुद्ध स्वरूप को पहचानने का।
🌼 वेद, उपनिषद, गीता, योग-दर्शन, सभी एक स्वर में कहते हैं:
“दुख असत्य नहीं है, परंतु उसका समाधान संभव है।”
“दुख से मुक्त होना, मानव जीवन का परम लक्ष्य है।”
यदि हम वेदों की गहराई से इस विषय को समझें, तो हमें यह ज्ञात होता है कि सृष्टि में दुख स्थायी नहीं, साधन है — आत्मा को परमात्मा तक पहुँचाने का।
इसलिए, दुख को शत्रु नहीं, गुरु मानिए। वह हमें अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य की ओर प्रेरित करता है।
Sagar Sinha
Very nice post गुरुजी 🙏