आज के युग में तनाव (Stress), चिंता (Anxiety) और डिप्रेशन (Depression) जीवन का हिस्सा बनते जा रहे हैं। नौकरी का दबाव, रिश्तों में असंतुलन, भविष्य की अनिश्चितता और सामाजिक अपेक्षाएं मनुष्य के मानसिक स्वास्थ्य को भीतर से तोड़ रही हैं। आधुनिक चिकित्सा इन्हें “रोग” मानती है और मनोचिकित्सक इन्हें “मानसिक विकार”। लेकिन क्या वैदिक ऋषियों ने भी इन समस्याओं को पहचाना था? क्या वे इनका समाधान जानते थे?
इस लेख में हम वेद, उपनिषद, गीता और योगदर्शन के माध्यम से मानसिक समस्याओं के समाधान की वैदिक दृष्टि को समझेंगे।
वेदों और उपनिषदों में मानसिक अशांति को “चित्त विक्षेप”, “मनोमल”, “अशुद्धि” अथवा “अविद्या” के नाम से जाना गया है। शास्त्रों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि—
“चित्तस्य शुद्धये कर्म” — (गीता 5.11)
कर्म और साधना का उद्देश्य चित्त की शुद्धि है।
जहाँ चित्त विक्षिप्त हो जाता है, वहाँ चिंता, शोक, भय, मोह, अहंकार और तृष्णा जन्म लेते हैं — और यही आधुनिक नामों में Anxiety और Depression बन जाते हैं।
मनुष्य स्वयं को केवल शरीर और मन मान लेता है। आत्मा का बोध न होने से उसे दुख में ही जीवन दिखाई देता है।
“अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीरा: पण्डितं मन्यमानाः।”
— ईशोपनिषद् 9
अविद्या में लिप्त व्यक्ति स्वयं को ज्ञानी मानने लगता है और दुख को जन्म देता है।
भोग की दौड़ कभी खत्म नहीं होती। जब इच्छाएं पूरी नहीं होतीं, तो तनाव और डिप्रेशन जन्म लेता है।
“त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः। कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥”
— भगवद्गीता 16.21
काम, क्रोध और लोभ — ये तीन नरक के द्वार हैं।
“युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु…” (गीता 6.17)
संयमित जीवन ही मानसिक संतुलन देता है।
मनुष्य अपने शरीर, नाम, पद, रिश्ते आदि से अपनी पहचान बनाता है। लेकिन जब इनमें कुछ खो जाए तो मन टूट जाता है। इसका समाधान है — आत्मबोध।
“न जायते म्रियते वा कदाचित्…” — गीता 2.20
आत्मा कभी जन्म नहीं लेती, कभी मरती नहीं।
🔹 वेदों की दृष्टि में आत्मा अजर-अमर है। इसका ज्ञान होने पर मनुष्य भय, दुख और चिंता से मुक्त हो जाता है।
“योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः” — पतंजलि योगसूत्र 1.2
योग वह प्रक्रिया है जिससे चित्त की सारी विक्षिप्त अवस्था समाप्त हो जाती है।
“सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज…” — गीता 18.66
ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण से मन के सब संकट शांत हो जाते हैं।
🔹 जब व्यक्ति को लगता है कि वह अकेला है, बेबस है, जीवन व्यर्थ है — तब भक्ति उसे आश्रय देती है।
तनाव तब बढ़ता है जब हम फल की चिंता करते हैं। वैदिक समाधान है — निष्काम कर्म।
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन…” — गीता 2.47
🔹 कर्म करते हुए फल की चिंता छोड़ देने से मन शांत होता है। यही तनाव-मुक्त जीवन का मूल मंत्र है।
सिद्धांत | आधुनिक समस्या | वैदिक समाधान |
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चित्त शुद्धि | नकारात्मक सोच | जप, यज्ञ, संयम |
आत्मबोध | पहचान संकट | आत्मज्ञान (वेदांत) |
इंद्रियनिग्रह | भोग की अतृप्ति | ब्रह्मचर्य, व्रत |
संतुलित जीवन | अनिद्रा, थकावट | दिनचर्या, ऋतुकाल |
योगाभ्यास | तनाव, अवसाद | प्राणायाम, ध्यान |
मानसिक ताजगी के लिए सबसे शुभ समय — सुबह 4–6 बजे
“ॐ भूर्भुवः स्वः…”
गायत्री मंत्र मानसिक अशांति को दूर करता है।
हवन से वायुमंडल शुद्ध होता है और मन भी।
तनाव, अनिद्रा और चिड़चिड़ेपन में लाभकारी।
नहीं। वैदिक दृष्टि में मानसिक रोग अज्ञान, चित्त विकार, और जीवनशैली दोष से होते हैं, न कि पाप से। रोगी को दोष देना अधार्मिक है। समाधान वैदिक साधना है, तिरस्कार नहीं।
हाँ, और अत्यंत आवश्यक है। जब मनुष्य आधुनिक तकनीक और उपभोग से संतुष्टि नहीं पा रहा, तब वैदिक मार्ग — योग, ध्यान, भक्ति, आत्मबोध, यज्ञ और संयम — ही उसे सच्ची शांति प्रदान कर सकते हैं।
वेद हमें याद दिलाते हैं कि —
“शं नो अस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे।” — यजुर्वेद
हमारे जीवन में दो पैरों वाले (मनुष्य) और चार पैरों वाले (प्रकृति के प्राणी) सभी के लिए शांति हो।
दिनचर्या | अभ्यास |
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सुबह | ब्रह्ममुहूर्त जागरण + गायत्री मंत्र जप + अग्निहोत्र |
दिन | कर्म में लगन, फल की चिंता न करें |
संध्या | 10 मिनट ध्यान + अग्निहोत्र |
रात | स्वाध्याय + आत्मचिंतन |