सनातन धर्म विश्व का सबसे प्राचीन और वैज्ञानिक धर्म है। जिसने न केवल भारत को बल्कि सम्पूर्ण विश्व को धर्म, नीति, आत्मज्ञान और सहिष्णुता का मार्ग दिखाया। किन्तु आज जब धर्म संकट में है, जब हमारी संस्कृति पर आक्रमण हो रहे हैं—शारीरिक, मानसिक और वैचारिक—तो आश्चर्यजनक रूप से सनातनी जनसमूह मौन है, असहाय है, और संघर्ष करने में असफल दिखता है। सनातन धर्म की जड़ें वेदों, उपनिषदों और गीता में हैं। परंतु आज जब भी इस धर्म पर संकट आता है, जब आक्रांताओं द्वारा मानसिक, सांस्कृतिक या राजनीतिक आक्रमण होता है—तो सनातनी जनसमूह मौन धारण कर लेता है, या मात्र प्रार्थनाओं तक सीमित रह जाता है। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है – क्यों नहीं है सनातनियों में वह संघर्ष की ज्वाला जो उनके पूर्वजों में थी? क्या कारण है कि आज वे इतने असहाय, संगठितविहीन और रक्षाहीन प्रतीत होते हैं?
यह Blog Post उस मानसिकता की गहराई में जाकर विश्लेषण करता है, जो संकट के समय सनातनियों को डरपोक बना देती है, और फिर समाधान भी प्रस्तुत करता है जिससे यह धर्म पुनः वीरों का धर्म बन सके।
Table of Contents
1. ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य – सनातन धर्म की वीर परंपरा
1.1 वैदिक युग में संघर्षशीलता
- ऋग्वेद में “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” का उद्घोष था—”सारे विश्व को आर्य बनाओ”। यह सामाजिक जागरण का मंत्र था।
- ऋषि-मुनि शस्त्र और शास्त्र दोनों में पारंगत थे।
1.2 रामायण और महाभारत का आदर्श
- भगवान श्रीराम ने रावण जैसे शक्तिशाली असुर को पराजित कर धर्म की रक्षा की। धर्म और अधर्म की स्पष्ट रेखा खींचते हुए भगवान राम ने रावण के विरुद्ध युद्ध किया। संदेश: धर्म की रक्षा के लिए युद्ध आवश्यक होता है।
- भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अर्जुन से कहते हैं – “क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ।” युद्ध से हटना कायरता है। संदेश: जब धर्म संकट में हो, तो शांत रहना अधर्म को बढ़ावा देना है।
- अर्जुन को युद्ध से डरते देख श्रीकृष्ण ने कहा — “हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं, जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।” – अगर युद्ध में तू मारा जायगा तो तुझे स्वर्ग की प्राप्ति होगी I
- छत्रपति शिवाजी महाराज का संघर्ष – मुगलों की दमनकारी नीतियों के विरुद्ध उन्होंने स्वराज्य की स्थापना की। संदेश: संगठन, रणनीति और आत्मबल से भी धर्म की रक्षा होती है।
2. आधुनिक युग में भय की प्रवृत्ति – कारण विश्लेषण
2.1 गुरुकुलों का लोप
- प्राचीन भारत में हर बच्चा 8 वर्ष की आयु में गुरुकुल जाता था।
- गुरुकुलों में वेद, नीति, आत्मरक्षा, अस्त्र-शस्त्र विद्या सिखाई जाती थी।
- आज गुरुकुल नहीं है; ज्ञान का स्रोत सूख चुका है। बच्चों को बताया ही नहीं जाता कि वे कौन हैं? उनके पूर्वज कितने महान थे ?
2.2 भोगवादी शिक्षा प्रणाली
- आज की शिक्षा प्रणाली केवल नौकरी पाने के लिए है, चरित्र निर्माण के लिए नहीं।
- धर्म, संस्कृति, गौरवशाली इतिहास से बच्चों को वंचित रखा जा रहा है। बच्चा शास्त्र नहीं जानता, आत्मरक्षा नहीं सीखता।
2.3 एकता का अभाव
- मुसलमानों में मस्जिद एकता का केंद्र है, ईसाइयों में चर्च; परंतु सनातनी मंदिरों में शिक्षा या संगठन नहीं है।
- जाति, भाषा, क्षेत्र के नाम पर हम बंटे हुए हैं। न नेतृत्व है, न अनुशासन।
2.4 भौतिकवाद और आत्मलोभ
- हर व्यक्ति केवल अपने हित में रमा हुआ है।
- धर्म के लिए समय, ऊर्जा या बलिदान देने की भावना नहीं है।
मानसिकता की गिरावट
- जब भी कोई अपमान या हमला होता है, हम सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हैं लेकिन प्रतिक्रिया नहीं देते।
- हम केवल “भगवान देख लेंगे” कहकर जिम्मेदारी टाल देते हैं।
यह भय, असंगठन और आलस्य का परिणाम है – और यही सनातन धर्म को खोखला कर रहा है।
3. वर्तमान चुनौतियाँ
3.1 वैचारिक युद्ध
- सनातन धर्म को “पिछड़ा”, “ब्राह्मणवादी”, “अंधविश्वासी” कहकर बदनाम किया जा रहा है।
- वामपंथी और सेकुलर विचारधारा द्वारा मीडिया, पाठ्यक्रम, फिल्म आदि में लगातार प्रहार हो रहा है। वैदिक शास्त्रों के मनगढ़ंत भाष्य बुक्स एंड ebook को बाजारों एवं इंटरनेट में सरलता से उपलब्ध करवा कर सनातन धर्म को बदनाम किया जा रहा है
3.2 धर्मांतरण का जाल
- मिशनरियों द्वारा गरीबों को लालच देकर धर्म परिवर्तन कराया जा रहा है।
- लव जिहाद, बहला-फुसलाकर बेटियों को निशाना बनाया जा रहा है।
3.3 आत्मविश्वास की कमी
- जब संकट आता है, सनातनी लड़ने के बजाय समझौता करता है या पलायन करता है।
- यह भय परंपरा के लोप, शिक्षा की कमजोरी और नेतृत्व के अभाव का परिणाम है।
4. समाधान: पुनः संघर्षशील बनने का मार्ग
4.1 गुरुकुलों की पुनर्स्थापना
- हर गांव, हर शहर में एक गुरुकुल हो, जहां वेद, नीति, इतिहास, गीता और आत्मरक्षा सिखाई जाए।
- गुरुकुलों में शरीर, मन और आत्मा का सम्यक् विकास हो।
4.2 गीता का अध्ययन अनिवार्य हो
- गीता न केवल मोक्ष का मार्ग बताती है, बल्कि युद्ध के समय मनोबल और साहस का पाठ पढ़ाती है।
- “न भयात रणं उत्क्रान्ति” — गीता वीरता सिखाती है, पलायन नहीं।
4.3 आत्मरक्षा और शस्त्रविद्या का प्रशिक्षण
- प्रत्येक सनातनी युवक-युवती को आत्मरक्षा के गुर सीखने चाहिए। आत्मरक्षा के बिना धर्म रक्षण संभव नहीं।
- राज्य द्वारा समर्थित धर्मवीर प्रशिक्षण केंद्र खोले जाने चाहिए।
4.4 संगठन और एकता
- जाति, भाषा, क्षेत्र से ऊपर उठकर हमें केवल “सनातनी” बनना होगा। सप्तऋषियों ने कभी जातियों में धर्म नहीं बांटा।
- संगठनों को मजबूत किया जाए, धर्म-संस्कृति की रक्षा सामूहिक उत्तरदायित्व बने।
4.5 डिजिटल शास्त्र क्रांति
- हर सनातनी को मोबाइल, यूट्यूब, सोशल मीडिया का उपयोग धर्म प्रचार के लिए करना चाहिए।
- सत्य, तर्क, विज्ञान और शास्त्रों पर आधारित सामग्री फैलाएँ।
4.6 मानसिक पराक्रम – “भीष्म” बनो, “अर्जुन” बनो
- भीतर की कायरता को समाप्त करना होगा।
- जीवन की अंतिम साँस तक धर्म के लिए खड़े रहना होगा।
5. निष्कर्ष: धर्म की रक्षा के लिए साहस चाहिए, केवल प्रार्थना नहीं
जब धर्म संकट में होता है, तो केवल पूजा-पाठ से उसकी रक्षा नहीं होती। भगवान परशुराम, श्रीराम ने युद्ध किया, श्रीकृष्ण ने कूटनीति और रणनीति दोनों से धर्म की रक्षा की। उन्होंने हमें सिखाया कि धर्म की रक्षा के लिए संघर्ष आवश्यक है।
आज आवश्यकता है कि सनातनी अपने भीतर छिपे हुए वीर भाव को पुनः जाग्रत करें। “धर्मो रक्षति रक्षितः” — धर्म उनकी रक्षा करता है, जो धर्म की रक्षा करते हैं।
आज आवश्यकता है पुनः उस अर्जुन बनने की जो युद्धभूमि में खड़ा हो,
पुनः उस हनुमान बनने की जो सीना चीरकर राम को दिखा सके,
पुनः उस शिवाजी बनने की जो धर्म की लौ जलाकर आत्मबल जगा सके।
श्रीकृष्ण ने कहा –
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” – धर्म का रक्षण हमारा कर्तव्य है। उसका फल ईश्वर पर छोड़ो। लेकिन कर्म तो करो!
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