मनुष्य के जीवन में धर्म और अधर्म दो ऐसे पथ हैं जो प्रत्येक क्षण निर्णय की कसौटी पर उसे खड़ा करते हैं। धर्म का मार्ग प्रायः कठिन प्रतीत होता है—संयम, त्याग, अनुशासन और आत्मसंयम से भरा हुआ। इसके विपरीत अधर्म का मार्ग तात्कालिक सुख, भोग, सुविधा और स्वतंत्रता का भ्रम देता है, जो देखने में सरल जान पड़ता है।
लेकिन क्या वास्तव में अधर्म का मार्ग सरल है? और क्या धर्म का मार्ग कठिन होकर भी श्रेष्ठ है? इस लेख में हम धर्म और अधर्म के मार्गों का गहन विश्लेषण करेंगे—शास्त्र, दर्शन, तर्क, और अनुभव के आधार पर।
Table of Contents
1. धर्म और अधर्म की परिभाषा:
- धर्म (Dharma):
धर्म का मूल अर्थ है – “धारण करने योग्य” अर्थात् वह जो संसार को, समाज को और आत्मा को संतुलन में रखे। - अधर्म (Adharma):
वह जो सत्य के विपरीत हो, जो समाज या आत्मा के कल्याण में बाधक हो। अधर्म का आश्रय लेना भले ही तत्काल लाभ दे, किन्तु दीर्घकालिक विनाश का कारण बनता है।
2. धर्म का मार्ग कठिन क्यों है?
i. आत्मसंयम की आवश्यकता:
धर्म का पालन करना केवल बाह्य आचरण नहीं, अपितु अंतःकरण की शुद्धता का विषय है।
उदाहरण:
- सत्य बोलना — जब झूठ बोलने से लाभ हो रहा हो।
- ब्रह्मचर्य का पालन — जब इच्छाएँ तीव्र हों।
- क्षमा करना — जब प्रतिशोध का भाव तीव्र हो।
ii. समाज में विरोध का सामना:
धार्मिक व्यक्ति प्रायः लोभ, अन्याय, और भ्रष्ट आचरण के विरुद्ध खड़ा होता है।
- परिणामस्वरूप, वह अकेला पड़ सकता है या समाज की आलोचना का पात्र बन सकता है।
iii. दीर्घकालिक लाभ – तत्कालिक सुख नहीं:
धर्म दीर्घकालिक सुख का मार्ग है – यह तत्कालिक सुख की बलि मांगता है।
उदाहरण: राजा हरिश्चंद्र ने सत्य के लिए सब कुछ खो दिया – पत्नी, पुत्र, राज्य – लेकिन धर्म की रक्षा की और पुनः प्राप्त किया।
3. अधर्म का मार्ग सरल क्यों प्रतीत होता है?
i. तात्कालिक सुख की पूर्ति:
- चोरी, झूठ, व्यभिचार, भ्रष्टाचार से त्वरित लाभ मिलता है।
- अधर्म प्रायः मोह, कामना, और वासना को संतुष्ट करता है।
ii. सामाजिक स्वीकृति (आज के युग में):
- आधुनिकता के नाम पर अधार्मिक कृत्यों का विरोध के स्थान पर उसे स्वीकार कर लिया जाता है।
- जैसे: रिश्वत, मद्यपान, मांसाहार, जुआ जैसे अधार्मिक कृत्यों को “समाज का हिस्सा” मान लिया गया है।
iii. उत्तरदायित्व से पलायन:
- धर्म उत्तरदायित्व देता है, अधर्म छूट देता है।
4. शास्त्रीय प्रमाण और दृष्टिकोण
i. वेद:
वेद धर्म को ऋत (सत्य और व्यवस्था) के रूप में वर्णित करते हैं।
- ऋग्वेद में कहा गया है – “ऋतेन ऋतमाप्येत” — सत्य से ही सत्य की प्राप्ति होती है।
ii. महाभारत:
- पांडवों ने धर्म का पालन किया, भले ही उन्हें कष्ट सहने पड़े।
- दुर्योधन ने अधर्म का मार्ग चुना – प्रारंभ में सुख मिला, लेकिन अंत में विनाश।
iii. रामायण:
- श्रीराम ने वनवास को स्वीकार किया – धर्म के लिए।
- रावण ने अधर्म से सीता का हरण किया – परिणामस्वरूप लंका का नाश हुआ।
5. तात्त्विक दृष्टिकोण:
i. अधर्म का मार्ग अंततः कठिन होता है:
- प्रारंभिक रूप से सरल दिखने वाला अधर्म – अंततः मानसिक अशांति, अपराधबोध, और सामाजिक पतन की ओर ले जाता है।
ii. धर्म का मार्ग प्रारंभ में कठिन, अंत में आनंददायक:
- प्रारंभिक त्याग के बाद धर्म आत्मा को शांति, संतुलन और मुक्ति की ओर ले जाता है।
गीता (6.17):
“जो योगी भोजन, व्यवहार, कार्य, शयन और जागरण में भी संतुलित होता है – वही दुःखों से मुक्त होता है।”
6. आधुनिक जीवन में धर्म-अधर्म का संघर्ष:
- सोशल मीडिया, विज्ञापन, और भौतिकतावाद से प्रेरित जीवनशैली अधर्म को प्रोत्साहन देती है।
- लेकिन अध्यात्मिक जागरण, ध्यान, योग और भारतीय दर्शन पुनः धर्म की ओर लौटने की प्रेरणा देते हैं।
7. निष्कर्ष:
धर्म का मार्ग कठिन अवश्य है, किन्तु वह आत्मा के कल्याण, समाज की उन्नति और ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग है। अधर्म भले ही सरल लगे, पर उसका अंत अंधकारमय और विनाशकारी होता है।
अतः धर्म को चुनना ही दीर्घकालिक शांति, आत्मिक संतोष और सच्चे सुख की कुंजी है।
नारायणीय वाक्य:
“धर्म एव हतो हन्ति, धर्मो रक्षति रक्षितः।”
(जो धर्म का नाश करता है, वह स्वयं नष्ट होता है। जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।)

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